Thursday, November 4, 2010

वक्त

 पुस्तक वक्त जो की अभी पांडुलिपि की शक्ल मे है की कुछ पंक्तियाँ-

कठोर कर्म की गर्मी आगे,
कठिन वक्त पिघलता है,
वक्त से पहले किस्मत से ज़्यादा
कर्मवीर को मिलता है.


श्रॄष्टी जिसकी न्यायालय है,
वक्त बना है न्यायाधीश.
पर ब्रह्म परमेश्वर भी ,
जहाँ झुकाते अपना शीश.


समय, काल , मियाद अवसर ,
सब वक्त के पर्याय हैं,
हर शब्द तोड़कर देखा तब,
सब अपने में अध्याय हैं.


हर ताज बना है सर के खातिर ,
हर सर नहीं है ताज को.
पर वक्त तो बेताज है
नहीं ताज मोहताज को.


सतयुग मे श्री हरीशचंद्र को,
वक्त ने राजा बनवाया,
जानें कहाँ क्या भूल हुई,
की डोम के हाथो. बिकवाया.


शिव शंकर कैलाश पति,
महादेव कहलाते थे,
वक्त की ही मार थी,
जो सती-सती चिल्लाते थे.


रामा और कृष्णा भी प्यारे
वक्त के अधीन हुए.
तीन लोक की शक्ति थी,
फिर भी कितने दिन हुए.

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